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Tuesday 30 October 2012

उलझन ... Entry by Deepak Agarwal, BIM Trichy

उलझनें बढ़ रही थी ज़िंदगी की राह मे,
कश्मकश थे हमेशा जीने की इस चाह मे.

मंज़िलों का इल्म ना था ना पता था रास्ता,
यूँ ही चलते जा रहे थे कट रही थी दास्ताँ.

इक दिन एक मोड़ पर खुद से हुआ यूँ सामना,
गिर रहे थे हम थे चाहते खुद को फिर यूँ थामना.

पाल रखे थे भरम वो तब थे सारे मिट गये,
ज़िंदगी के खेल मे सब मोहरे अपने पिट गये.

नये सिरे से डोर मे अब मोती हमने जोड़े है,
ज़िंदगी के पिछले पन्ने पीछे ही रख छोड़े है.

ज़िंदगी को जीने का मतलब है अब आया समझ,
समझदार निकले है वो जिनको समझा था नासमझ.

पहलू बदल कर देखो तो दुनिया बदल सी जाती है,
हर पल मे जीना ज़िंदगी को ज़िंदगी सिखलाती है.

पहले था तन्हा अकेला खाली था मेरा मुकाम,
अब लगता है सब है मेरे मेरा है सारा जहाँ.

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