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Wednesday 31 October 2012

माँ ... Entry by Mudit Agarwal, MICA Ahmedabad

माँ
 

वो किताबें और उनकी धुंधली होती स्याही
जब गहरा होता कागज़ का रंग , एक महक छोड़ जाए
वो दरकती दीवारें जिनमे पीपल की कोपल आयें
वही पुराना घरौंदा जिसके आँगन में माँ को सताएं

वो महक मेरी मिटटी की , मेरी माँ की दुआएं

ये रहती वही चाहे पीढियां बदलती जाएँ
वो कुप्पी की लौ में बीतीं वो गर्मी की रातें जब
घर की छत , खुले आसमा में माँ मुझे अपनी गोद में सुलाएं

वो मेरी माँ के हाथ की तवे की करारी रोटी

जब उस स्वाद के हुस्न में कभी कमी नहीं होती
में ढूँढूं वही अलमारियां अब गाहे बगाहे
जहाँ माँ से छुपकर मैंने कुछ पैसे थे छुपाये

वो बच्चे की तरह कभी उसका मुझपे लाड आना

वो दोस्तों के साथ देर होने पे उसका तमतमाना
मुझसे बात न होने पे उसका रूठ जाना
फिर बस दो मीठे बोल से उसका पिघल जाना

दूर होने पे घर से , उसकी वो चिंताएं

और दिन भर करते रहना मेरे लिए दुआएं
कैसे लौटाऊँगा ये निश्छल प्यार उसका , जो कोई क़र्ज़ नहीं
इश्वर कभी तो बनाना उसको मेरा बेटा और मुझको माँ कहीं !!

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