एक तितली की जैसी थी वह …
नाज़ुक से पंख उसके ,
नटखट से पैरों वाली ….
अपने घोंसले मैं खुश
रहती थी वह ,
जामने से न उसका कोई
वास्ता न कोई
ख्वाइश …
मासूम सी नज़रों
से करती थी
वह ,
उनके आने का
इंतज़ार …
वक़्त जैसे थमा
सा था उसकी नज़रों
मैं,
और आहटों का
न कोई हिसाब
किताब …
एक तितली की जैसी थी वह …
अपनी ख्वाहिशों को
पूरा करने ,
खुला छोड़ दिया हैं
अब उसको …
एक डोर के
सहारे ज़िन्दगी से
मुकाबला करने ,
अपनी मंजिल की
तलाश और सपनो को
हकीक़त मैं बदलने …
पर मंजिल का न कोई नाम हैं न पता,
और न कोई
ख़त मिला हैं
जिसके बह्रोंसे वह रास्ते मिल
जाते …
बस अपनी ही धुंद
मैं,
सारी दुनिया पे अपनी चाप छोड़ने,
निकल पड़ी हैं
वह !!
अभी भी, एक तितली की जैसी हैं वह …
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