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Tuesday 30 October 2012

प्रकृति की व्यथा ... Entry by Anupam Kumar, IIM Calcutta

याद कर जब तूने ली इस दुनिया में पहली साँस।
याद कर जब तुझे हुआ खुद के होने का अहसास॥
खुद की जिंदगी सँवारी तूने, कर ली खूब तरक्की।
खूब किया तूने मेरा दोहन, फिर भी तुझे चैन नहीं॥

कभी तूने जंगल उजाड़े, कभी नदियों का रास्ता मोड़ा।
कभी उगाया तम्बाकू तूने, ख्याल आया मेरा थोड़ा॥
खूब बनाया पैसा तूने, जमकर तूने शोहरत कमाई।
खूब किया तूने मेरा दोहन, फिर भी तुझे चैन नहीं॥

पैसों के आगे तुझे लगने लगी दूसरों की जान भी बेमानी।
औरों की जीत में हार, औरों की हार में अपनी जीत मानी॥
दूसरों के दुःख में तूने अपने सुख की तलाश की।
खूब किया तूने मेरा दोहन, फिर भी तुझे चैन नहीं॥

अपना माल बढ़ाने के लिए तूने दूसरों का माल छीना।
तलवार से मन माना तो बंदूक के साथ सीखा जीना॥
फिर भी दिल भरा तो ईज़ाद की विधि बम बनाने की।
खूब किया तूने मेरा दोहन, फिर भी तुझे चैन नहीं॥

कहीं पेड़-पौधे जल रहे हैं, कहीं ग्लेशियर पिघल रहे हैं।
तूने लाया मुझमें असंतुलन, तभी तो हालात बदल रहे हैं॥
बंद कर तू अपनी मनमानी, अब भी बिगड़ा बहुत कुछ नहीं।
मेरा प्रस्ताव स्वीकार कर क्योंकि जब नैन खुले, तब रैन छँटी॥

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