क्या अब तुमसे भी कुछ बोलूं मैं?
मुँह पर बंधी पट्टियां खोलूं मैं?
जन्म लेते ही होंठ सिल दिए गए मेरे,
किताबों का बोझ भी न उठाने दिया |
पैरों में बंधी पायल ने घर के पार न होने दिया |
सोलहवें जन्मदिन पर साईकिल मांगी तो
बर्तनों का सेट थमा दिया |
जब आँखों ने झुकना सीख लिया,
और हाथों ने सीख ली मजदूरी,
बिठा दी गयी मैं पाउडर पोत बीच बाज़ार में |
कुछ न देखा मैंने, सिर्फ सुना-
हंसी, ठहाके, सवालों की बौछार और फिर..
मेरी बोली लगायी गयी |
पिता फूले न समाते-
पढ़ा लिखा सरकारी नौकर,
और क्या चाहिए?
आँखों पे बंधी बेबसी की पट्टियों ने
सुनाई हर लड़की की दास्तां,
बोली में दहेज़ के गिरते उठते दाम |
कहाँ मैं गुड्डे गुड़ियों की नज़र उतारती थी,
और आज गुड्डे गुड़ियों की तरह
खेल खेल में ब्याह दी गयी |
घर की दीवारों से किसी पुरानी तस्वीर की तरह
उतार दी गयी |
डोली चढ़ जिस सपनों के महल में उतरी,
वह सपनों के टूटने पर ढह गया,
चुभते टुकड़ों की चोट से बोझिल कदम
न उठा पायी मैं,
देहरी उस कैद की लांघ न पायी मैं |
सर्वस्व लूटा कर के भी सुख न पाया मैंने,
घर अपना पर लोग पराये,
हर जगह धोखा ही खाया मैंने |
अपने धाम की खोज में आज तुम तक आई हूँ,
भेंट के लिए और कुछ नहीं बस प्राण संग लायी हूँ |
ले लो, अब ये भी ले लो,
केवल मेरी मुक्ति दे दो |
न मैं सरस्वती, न चंडी न लक्ष्मी का अवतार,
मैं हूँ केवल एक स्त्री
जिसने किया इस संसार का विस्तार |
हर नारी पर बस इतनी कृपा कर दीजो-
अगले जनम बस बिटिया न कीजो |
मुँह पर बंधी पट्टियां खोलूं मैं?
जन्म लेते ही होंठ सिल दिए गए मेरे,
किताबों का बोझ भी न उठाने दिया |
पैरों में बंधी पायल ने घर के पार न होने दिया |
सोलहवें जन्मदिन पर साईकिल मांगी तो
बर्तनों का सेट थमा दिया |
जब आँखों ने झुकना सीख लिया,
और हाथों ने सीख ली मजदूरी,
बिठा दी गयी मैं पाउडर पोत बीच बाज़ार में |
कुछ न देखा मैंने, सिर्फ सुना-
हंसी, ठहाके, सवालों की बौछार और फिर..
मेरी बोली लगायी गयी |
पिता फूले न समाते-
पढ़ा लिखा सरकारी नौकर,
और क्या चाहिए?
आँखों पे बंधी बेबसी की पट्टियों ने
सुनाई हर लड़की की दास्तां,
बोली में दहेज़ के गिरते उठते दाम |
कहाँ मैं गुड्डे गुड़ियों की नज़र उतारती थी,
और आज गुड्डे गुड़ियों की तरह
खेल खेल में ब्याह दी गयी |
घर की दीवारों से किसी पुरानी तस्वीर की तरह
उतार दी गयी |
डोली चढ़ जिस सपनों के महल में उतरी,
वह सपनों के टूटने पर ढह गया,
चुभते टुकड़ों की चोट से बोझिल कदम
न उठा पायी मैं,
देहरी उस कैद की लांघ न पायी मैं |
सर्वस्व लूटा कर के भी सुख न पाया मैंने,
घर अपना पर लोग पराये,
हर जगह धोखा ही खाया मैंने |
अपने धाम की खोज में आज तुम तक आई हूँ,
भेंट के लिए और कुछ नहीं बस प्राण संग लायी हूँ |
ले लो, अब ये भी ले लो,
केवल मेरी मुक्ति दे दो |
न मैं सरस्वती, न चंडी न लक्ष्मी का अवतार,
मैं हूँ केवल एक स्त्री
जिसने किया इस संसार का विस्तार |
हर नारी पर बस इतनी कृपा कर दीजो-
अगले जनम बस बिटिया न कीजो |
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